रविवार, 21 अगस्त 2016

ग़ज़ल

इश्क़ की राह चलना, सम्भल के ज़रा ...
आग दामन में भरना, सम्भल के ज़रा

ज़िद जो बिकने की है तो बिको शौक़ से
किसके हाथों है बिकना,सम्भल के ज़रा

बोलियाँ तुम पे लाखों लगेंगी मगर
किस हथेली को चुनना, सम्भल के ज़रा

अब्र बन के भटकना यूं अच्छा नहीं
जिस शहर भी बरसना, सम्भल के ज़रा

इश्क़ की बारगाह या कि दैर-ओ-हरम
सजदा किस को है करना सम्भल के ज़रा

फ़ख्र का है वे बाईस या रुसवाई का
राबता किस से रखना, संभल के ज़रा

कागज़ी है सफ़ीना मुहब्बत का यह
तेज़ धारे से लड़ना, संभल के ज़रा

है मुकद्दस बहुत "प्रेम" का खेल यह
बाज़ी उल्फ़त की चलना,संभल के ज़रा

Prem Lata Sharma
24/4/2016

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