शनिवार, 3 नवंबर 2012


ग़ज़ल
 
रु-ब-रु एक ऐसा  साया था
जिस से फूलों ने रंग पाया था  

उसके आने से सारा आलम भी
चाँद  के नूर में नहाया था

कोई खिड़की न कोई दर था खुला
और वो रूह में समाया था

उसकी खुशबू की प्यास थी लब पर
ज़हन –ओ-दिल पे नशा सा छाया था

दर्द से टूट कर कोई टुकड़ा
दिल की वादी में आज आया था


जब भी पूछा स्वाल उल्फत का
खिज़ल
सा हो के  मुस्कुराया था
 
तुम ही तूफां से जा के टकराओ  
इश्क ने हम को यह बताया था  


हिज्र के रंग में पुरनम आँखें
कोई जलता सा राग गाया  था
 मैं थी  सीपी वो आब-ए-नीसा था 
मैंने  गूहर उसे  बनाया था
 
आइना जैसी जात थी उसकी  
“प्रेम” हस्ती में उसको पाया था

प्रेम लता  
नवम्बर १, २०१२