बुधवार, 22 मई 2013


ग़ज़ल

मुझको
भूले हुए नामों से बुलाये कोई
फिर से इक ख़्वाब सुहाना सा दिखाये कोई

अब तो हर सिम्त है फैली हुई इक ख़ामोशी
कम से कम याद की  आवाज़ तो आए कोई

आज गरदाब हुआ ग़र्क सफ़ीने में मिरे
आके गरदाब को कश्ती से बचाये कोई

ना ये तोड़े ही बने और न खुलने  से खुले
कैसी यह गाँठ  पड़ी दिल में बताये कोई

क्यों छलक जाते हैं अरमान तेरे आने से

इस मुअम्मे का हमे हल तो सुझाये कोई

मुझको आता है मुकद्दर की हिफ़ाज़त करना

मेरे हाथों से लकीरें ना चुराये कोई

इश्क कि राह में हम दूर तलक आ पहुंचे
अब तो इस राह से हम को न हटाये कोई

नूर भर जाएगा दुनियां के हर इक गोशे में
प्रेम की शम्मा को इक बार जलाये कोई
ग़ज़ल
 
जाने किस के असर में रहता है
दर्द
ही अब  जिग़र में रहता है

राज़-ऐ-आतिश छिपा के सीने में
एक जुगनू शरर में रहता है

उस नगर से गुज़र के दिल तन्हा  
अब मुसलसल सफ़र में रहता है

गर्दिशों से है जैसे इश्क उसे
वो रहे-पुर-ख़तर में रहता है


वो मेरे रू--रू नहीं लेकिन
फिर भी क्लबो नज़र में रहता है

वो
 ख़ुदा है कि जो हमेशा से  
मेरे शाम--सहर में रहता है

प्रेमके दिल पे ऐसे है क़ाबिज़
जैसे अपने ही घर में रहता

ग़ज़ल
उसकी आँखों में वो नशा देखा,
हर तरफ़ हमने मयकदा देखा!
 
ख़्वाब देखा है एक रस्ते का
,
जिस में मंज़िल को ला-पता देखा
!
 
जब कुरेदी है ख़ाक माज़ी की
,
ज़ख्म–ए-दिल बस हरा हरा देखा
!

सच का इज़हार जब किया हमने
,
हर कोई बस ख़फ़ा ख़फ़ा देखा
!

कश्ती-ए-इश्क है घड़ा कच्चा
,
और दरिया चढ़ा चढ़ा देखा
!
 
इश्क़ देखेंगे क्या ख़िरद
वाले,
हम ने इस में महज़ ख़ुदा देखा!
 
मिसल
आहू तमाम सहरा को,
हर जगह पर सराब सा देखा
!
 
करते किस से तेरी शिकायत हम,
तुझपे तो शहर भी फ़िदा देखा
!

प्रेमकी बारगाह-ऐ-आली में,
तख़्त और ताज भी झुका देखा
!
          प्रेम लता दिसम्बर
, ,२०१२ 


ग़ज़ल

ऐसा रस्ते में इक निशाँ होगा
दामन-ए-शब भी जो अयाँ होगा

चीख  सुनता है कौन अब तेरी  
यह कोई शहर-ए-खुफ़्तगां होगा

बेज़बानी  भी  रंग लाएगी
हाल-ए-दिल आह से बयाँ होगा
    
छोड़ अब जिस्म की सलासिल को  
चल जहाँ  रूह का मकाँ होगा  

शम्मा–ऐ-प्रेम  जल रही होगी
नफ़रतों का धुआँ जहाँ होगा


ग़ज़ल
क्या
कशिश है तेरी निगाहों में,
मिस्ल-ए–हस्ती है तेरी राहों में!

आरज़ू और भी हुई पुख्ता,
जब से पहुंचे हैं कत्लगाहों में!

दर्द से आह भी जो की मैंने,

वो भी शामिल है अब गुनाहों में!
 
दीद होगी यकीन है मुझको,  
ख़ाक बनकर बिछी हूं राहों में
 
आखरी हिचकी जब भी आए तो,

काश आये उसी की बाहों में !

प्रेम पर तेरी रहमते मौला,
शुक्र है तेरी बारगाहों  में
प्रेम लता शर्मा १५/११/२०१२
ग़ज़ल   
धूप गम की जो मिले और निखर जायेंगे  
ठोकरें खा के यहाँ हम भी सुधर जायेंगे

 
हम तो ले जायेंगे कश्ती को भंवर में यारो
हम नही उनमे जो गरदाब से डर जायेंगे


अपना साया भी यहाँ हम से बेवफा निकला
अब तो यह ज़िद है कि हम धूप नगर जायेंगे


उसकी  चाहत तो धड़कती है मिरे सीने मैं   
उसको  पाने के लिए हद से गुज़र जायेंगे

 
इश्क  की  राह सलामत रहे इस दुनिया में
कितने ही कैस अभी “प्रेम” डगर जायेंगे
प्रेम लता शर्मा ........०३/०४/२०१३