मंगलवार, 22 जनवरी 2013




ग़ज़ल
आओ ए इखलाक वालो मिल के रोयें ज़ार ज़ार
जज़्बा-ए गैरत हुई है आज अर्थी पे सवार

टूट कर बिखरी है चूड़ी और पायल रो रही
ख़ाक में लिपटे हैं गेसू और रिदा है तार तार
...
चार सू कातिल खड़े हैं , पुरखतर हर राह है
जुर्म ऐसा सुन के ज़ुल्मत भी हुई है शर्मसार

नाकिसों की हर तरफ़ सौलत है अब फैली हुई
ज़ुल्म ऐसा देख कर है अर्श भी अब अश्कबार

गोशे गोशे में है छाया आज इक कहर-ओ-गज़ब
बाज़ है बेख़ौफ़ अब करने को बुलबुल का शिकार

हो रही वहशत रवां अब जुर्म इज़्ने.अब्न है
कैसे कोयल गायेगी सावन में नग्मा-ए-मल्हार

“प्रेम” की गलियां तो अब ख़ामोश हैं वीरान हैं
अब न सतरंगी फुहारें ले के आएगी बहार

1नाकिसों =अयोग्य 2 सौलत =आतंक 3 गोशे गोशे = कोने कोने 4 कहर-ओ-गज़ब = गजब का कहर 5 इजने अब्न= खुल्लम खुल्ला
प्रेम लता जनवरी १९, २०१३

मंगलवार, 8 जनवरी 2013


ग़ज़ल ………बहर हाज़ाज
यह आँखों में है क्यों ढलका समंदर  क्या बताएं हम

है  कैसी कशमकश यह दिल के अंदर क्या बताएं हम

गिरी थी  बिजलियाँ तो टूटकर मेरे नशेमन पर  
रकीबों का यह कैसें जल गया घर क्या बताएं हम   

सभी के पांव के नीचे ज़मीं तों एक जैसी है
तो क्यों है मुख्तलिफ सबका मुकद्दर क्या बताएं हम

तस्सवुर की  लकीरों से हजारों अक्स बनते हैं
है कितना गहरा इन यादों का सागर क्या बताएं हम   

किसी बे-सिम्त मंजिल के मुसाफिर हो गये जैसे  
क्यों भटका सा यहाँ हर इक बशर है क्या बताएं हम  ,

मिलाया जाने किसने ज़हर इस आलम की मिट्टी में
कि क्यों काला पड़ा हर इक शजर है क्या बताए हम  

हर इक चेहरे पे बरपी है अजब इक बदहवासी सी
 
सोराबों में भटकती क्यों  नज़र है, क्या बताएं हम
 
यह किसके नक्शे पा पर “प्रेम” ने सिर रख दिया अपना   
कोई दैरो-हरम सी ही  डगर है  क्या बताएं हम

प्रेम लता
जनवरी ८, २०१३

शुक्रवार, 4 जनवरी 2013


ग़ज़ल

ऐसा रस्ते में इक निशाँ होगा
दामन-ए-शब भी जो अयाँ होगा

चीख  सुनता है कौन अब तेरी  
यह कोई शहर-ए-खुफ़्तगां होगा

बेज़बानी  भी  रंग लाएगी
हाल-ए-दिल आह से बयाँ होगा
    
छोड़ अब जिस्म की सलासिल को  
चल जहाँ  रूह का मकाँ होगा  

शम्मा–ऐ-प्रेम  जल रही होगी
नफ़रतों का धुआँ जहाँ होगा

प्रेम लता ..जनवरी ४ , २०१३