ग़ज़ल
शनासा ही नहीं थे जो वफ़ा से,
हुए वो पेश-ए-खिदमत किस अदा से,
हमारे अज़ल पर वोह मुस्कराए
रहे डरते जो अहसासे अफ़ा से
किया उल्फत को जब जिसने भी रुसवा,
नहीं वो बच सका खुद कि ज़फा से,
मोहब्बत तो है मीराज़े मुक़द्दस,
पड़ेगा खेलना सिद्द्को सफा से,
हवस की आग है रंगीन लेकिन,
संभल कर खेलना उलटी हवा से,
वो कैसे कैफियत समझे किसी की,
नहीं वाकिफ है जो अपनी खता से,
जो आया खुद-ब-खुद इक ख्वाब बनकर,
कहाँ आया कभी मेरी रजा से,
सफीना इश्क कहते हैं जिसे हम,
कभी निकला न गरदाबे बला से,
चले थे खेलने उल्फत कि बाज़ी,
रहे जो "प्रेम" से हरदम ख़फा से....प्रेम लता
शनासा ही नहीं थे जो वफ़ा से,
हुए वो पेश-ए-खिदमत किस अदा से,
हमारे अज़ल पर वोह मुस्कराए
रहे डरते जो अहसासे अफ़ा से
किया उल्फत को जब जिसने भी रुसवा,
नहीं वो बच सका खुद कि ज़फा से,
मोहब्बत तो है मीराज़े मुक़द्दस,
पड़ेगा खेलना सिद्द्को सफा से,
हवस की आग है रंगीन लेकिन,
संभल कर खेलना उलटी हवा से,
वो कैसे कैफियत समझे किसी की,
नहीं वाकिफ है जो अपनी खता से,
जो आया खुद-ब-खुद इक ख्वाब बनकर,
कहाँ आया कभी मेरी रजा से,
सफीना इश्क कहते हैं जिसे हम,
कभी निकला न गरदाबे बला से,
चले थे खेलने उल्फत कि बाज़ी,
रहे जो "प्रेम" से हरदम ख़फा से....प्रेम लता