बुधवार, 27 नवंबर 2013

फिल्बदीह मिसरे “ हो गयी क्या कोई कहता मुझ से” पर एक कोशिश

बच रही है हर इक निगाह मुझ से 
हो गया कौन सा गुनाह मुझ से

कोहकन और क़ैस का किस्सा
पूछता कोई बेवफ़ा मुझ से
 
तुझ से पहले बहार आ पहुंची
की है मौसम ने कज अदा मुझ से

किस भंवर में है डूबना तुझको
पूछता मेरा नाख़ुदा मुझ से
 
कौन दिखलाए राह-ए-मंजिल अब
मेरा बिछड़ा है रहनुमा मुझ से

जो समझता था रूह की बातें
रूठा है रम्ज़-ए-आशना मुझ से

क़ीमत-ए-जान की वसूल उसने
संगदिल ने जो की वफ़ा मुझ से

बज़्म-ए-माह आज कुछ परीशां थी
पूछती थी तिरा पता मुझ से

तू मेरी जिंदगी का हासिल है 
कभी होना नहीं जुदा मुझ से
 
‘प्रेम’ की वादियों में यूं भटकी
खो गया अपना ही पता मुझ से


मंगलवार, 17 सितंबर 2013


6/5/2013

TARAHI GAZAL...
HAMSAFAR KO NA KUCHH KAHBAR TAK HAI
SAATH APNA TO BAS SAFR TAK HA

CHHOD KAR JISM KI QAFAS MUJHKO
JAANA AB ROOH KI DAGAR TAK HA

JO AJAL SE BSAA KIYA MUJH MEIN
ZAAT USKI MIRE JIGAR TAK HAI

BAS WAHI HAASIL-E-SAFAR MERA
MERI MANZIL USI KE DAR TAK HAI

MOM KA JISM , RIDA SOORAJ KI
RAAH MEIN N KOI SHAJAR TAK HA

RAKS ME TUND HWAAYE’N HAIN MAGAR
JAANA HAM KO BHI AB BHANWAR TAK HAI

ISHQ KI AAN’KH KA KOI AAN’SU
AA GYAA MERI CHSHM-E-TAR TAK HAI

KASHTI-E-‘PREM’ HAI GHDAA KACHHA
AUT TOOFAA’N MIRE SAR TAK HAI

ग़ज़ल
 

हमसफ़र को न कुछ ख़बर तक है  
साथ अपना तो बस सफर तक है

छोड़ कर जिस्म की कफ़स मुझको
जाना अब रूह कि डगर तक है

जो अजल से बसा किया मुझ में
ज़ात उसकी मिरे जिगर तक है
  
बस वही हासिल-ए-सफ़र मेरा  
मेरी मंज़िल उसी उसी के दर तक है

मोम का जिस्म , रिदा सूरज की
राह में न कोई शजर तक है

रक्स है तुन्द हवाओं का मगर
जाना हम को भी अब भंवर तक

इश्क़ की आँख को कोई आंसू
आ गया मेरी चश्म-ए-तर तक है
 
कश्ती- ए “प्रेम” है घड़ा कच्चा
और तूफ़ान मिरे सर तक है   

ग़ज़ल

आज मिलने मुझे कुछ दर्द पुराने आये
मेरी रातों  के अंधेरों को बढ़ाने आये

 
कैसे नाकाम हुई हसरतें इक इक करके
फिर से माज़ी की कोई चाप सुनाने आये

जिस्म का प्यार कोई प्यार नहीं होता है
प्यार का कोई मसीहा यह पढ़ाने आये


बड़ी मुश्किल से सुलाई थी तमन्ना उनकी 
झूठे जलवों से मुझे फिर से लुभाने आये


करके बर्बाद मुझे माँगा है चाहत का हिसाब
आज फिर रूह को बस जिस्म बनाने आये


अब तो पलकों पे ही पथरा गए आंसू मेरे
तन्ज़ दे दे के मुझे फिर से रुलाने आये


कितनी ख़ामोश थी अहसास कि दुनिया मेरी
फिर से सन्नाटों में कोहराम मचाने आये

प्रेम लता शर्मा ......१४/०६/२०१३
 

सोमवार, 16 सितंबर 2013

GHAZAL
जब मुझे तू ही तू नज़र आया
शेर कहने का तब हुनर आया
JAB MUJHE TU HI TU NAZAR AAYA
SHE’R KAHN’Y KA TAB HUNAR AAY’A

तेरे हुस्न-ओ जमाल का साया
मेरे चेहरे पे नूर बन छाया
TERE HUSN-O-JMAAL KA SAAYA
MERE MAATH’Y PE NOOR BAN CHHAYA

एक  नासूर था निहां दिल में
उसको देखा तो फिर उभर आया

AIK NAASOOR THA NIHA,N DIL MEIN
USKO DEKHA TO FIR UBHAR AAY’A

वो तो मासूम कत्ल कर के रहा

और इलज़ाम मेरे सर आया
VO TO MASOOM QATL KAR KE RAHAA
AUR ILZAAM MERE SIR AAY’A

मेरे ख़्वाबों में और ख्यालों में

तेरा चेहरा शब-ओ-सहर आया
MERE KHWABO’N MEIN AUR KHYAALO’N MEIN
TERA CHEHRA SHAB-O-SAHR AAY.A

मैंने परवाज़ को जो पर खोले

आसमा लापता नज़र आया
MAIN NE PARWAAZ KO JO PAR KHOL,Y
AASMA LAPTAA NAZAR AAY,A

वे  ना मस्जिद न बारगाहों में
“प्रेम” के दिल में वो नज़र आया

VE NA MASJID NA BAARGAAHO’N MEIN
PREM KE DIL MEIN VO NAZAR AAY,A

सहरा है ये सहरा है यहाँ साया नहीं है
बस धूप का है साथ कोई अपना नहीं है

हर रोज़ नई उठती है हालात की आंधी
उम्मीद की शाख़ों पे कोई पत्ता नहीं है

अब धूप उतरती ही नहीं सहन में दिल के
खुश हो के कोई फूल यहाँ खिलता नहीं है

सच है कि मुहब्बत की गली अंधी गली है
इक तेरे सिवा कुछ भी यहाँ दिखता नही है

यह तर्क-ए-ताल्लुक तो बना जान का दुश्मन
दिल क्या करे जब इसका कोई चारा नहीं है

समझेगा कहाँ लज्ज़त-ए-गिरयां का असर वो
उल्फ़त में कभी दर्द से जो तड़पा नहीं है

दिल में है निहाँ शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
अश्कों से कभी बहने को ये कहता नहीं है

उम्मीद का दीपक भी जलाया था सर-ए-राह
लेकिन वो अभी ‘प्रेम’ नगर आया नहीं है
प्रेम लता शर्मा .......१५/९/२०१३
Ghazal
Sahra hai yeh sahra hai yahaan saaya nahi hai
bas dhoop ka hai saath koi apna nahi hai

har roz nai uth-ti hai haalaat ki aandhi
ummid ki shaakhon pe koi ptta nahi hai

ab dhoop utarti hi nahi sahan mein dil ke
khush ho ke koi fool yahaan khilta nahi hai

sach hai ki mohabbat ki gali andhi gali hai
ik tere siwa kuchh bhi yaha’n dikhta nahi hai

yeh tarq-e-taalluk to bna jaan ka dushman
dil kya kare jab iska koi chaara nahi hai

samjhega kahaa’n lazzat-e-giriyan ka asar vo
ulfat me kabhi dard se jo tadpa nahi hai

dil mein hai niha’n shiddat-e-jazbaat ka aalam
ashko’n se kabhi bahne ko yeh kahta nahi hai

ummid ka Deepak to jlaaya tha sar-e-raah
lekin vo abhi ‘prem’ nagar aaya nahi hai
Prem Lata Sharma .....15/9/2013
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बुधवार, 22 मई 2013


ग़ज़ल

मुझको
भूले हुए नामों से बुलाये कोई
फिर से इक ख़्वाब सुहाना सा दिखाये कोई

अब तो हर सिम्त है फैली हुई इक ख़ामोशी
कम से कम याद की  आवाज़ तो आए कोई

आज गरदाब हुआ ग़र्क सफ़ीने में मिरे
आके गरदाब को कश्ती से बचाये कोई

ना ये तोड़े ही बने और न खुलने  से खुले
कैसी यह गाँठ  पड़ी दिल में बताये कोई

क्यों छलक जाते हैं अरमान तेरे आने से

इस मुअम्मे का हमे हल तो सुझाये कोई

मुझको आता है मुकद्दर की हिफ़ाज़त करना

मेरे हाथों से लकीरें ना चुराये कोई

इश्क कि राह में हम दूर तलक आ पहुंचे
अब तो इस राह से हम को न हटाये कोई

नूर भर जाएगा दुनियां के हर इक गोशे में
प्रेम की शम्मा को इक बार जलाये कोई
ग़ज़ल
 
जाने किस के असर में रहता है
दर्द
ही अब  जिग़र में रहता है

राज़-ऐ-आतिश छिपा के सीने में
एक जुगनू शरर में रहता है

उस नगर से गुज़र के दिल तन्हा  
अब मुसलसल सफ़र में रहता है

गर्दिशों से है जैसे इश्क उसे
वो रहे-पुर-ख़तर में रहता है


वो मेरे रू--रू नहीं लेकिन
फिर भी क्लबो नज़र में रहता है

वो
 ख़ुदा है कि जो हमेशा से  
मेरे शाम--सहर में रहता है

प्रेमके दिल पे ऐसे है क़ाबिज़
जैसे अपने ही घर में रहता

ग़ज़ल
उसकी आँखों में वो नशा देखा,
हर तरफ़ हमने मयकदा देखा!
 
ख़्वाब देखा है एक रस्ते का
,
जिस में मंज़िल को ला-पता देखा
!
 
जब कुरेदी है ख़ाक माज़ी की
,
ज़ख्म–ए-दिल बस हरा हरा देखा
!

सच का इज़हार जब किया हमने
,
हर कोई बस ख़फ़ा ख़फ़ा देखा
!

कश्ती-ए-इश्क है घड़ा कच्चा
,
और दरिया चढ़ा चढ़ा देखा
!
 
इश्क़ देखेंगे क्या ख़िरद
वाले,
हम ने इस में महज़ ख़ुदा देखा!
 
मिसल
आहू तमाम सहरा को,
हर जगह पर सराब सा देखा
!
 
करते किस से तेरी शिकायत हम,
तुझपे तो शहर भी फ़िदा देखा
!

प्रेमकी बारगाह-ऐ-आली में,
तख़्त और ताज भी झुका देखा
!
          प्रेम लता दिसम्बर
, ,२०१२ 


ग़ज़ल

ऐसा रस्ते में इक निशाँ होगा
दामन-ए-शब भी जो अयाँ होगा

चीख  सुनता है कौन अब तेरी  
यह कोई शहर-ए-खुफ़्तगां होगा

बेज़बानी  भी  रंग लाएगी
हाल-ए-दिल आह से बयाँ होगा
    
छोड़ अब जिस्म की सलासिल को  
चल जहाँ  रूह का मकाँ होगा  

शम्मा–ऐ-प्रेम  जल रही होगी
नफ़रतों का धुआँ जहाँ होगा


ग़ज़ल
क्या
कशिश है तेरी निगाहों में,
मिस्ल-ए–हस्ती है तेरी राहों में!

आरज़ू और भी हुई पुख्ता,
जब से पहुंचे हैं कत्लगाहों में!

दर्द से आह भी जो की मैंने,

वो भी शामिल है अब गुनाहों में!
 
दीद होगी यकीन है मुझको,  
ख़ाक बनकर बिछी हूं राहों में
 
आखरी हिचकी जब भी आए तो,

काश आये उसी की बाहों में !

प्रेम पर तेरी रहमते मौला,
शुक्र है तेरी बारगाहों  में
प्रेम लता शर्मा १५/११/२०१२
ग़ज़ल   
धूप गम की जो मिले और निखर जायेंगे  
ठोकरें खा के यहाँ हम भी सुधर जायेंगे

 
हम तो ले जायेंगे कश्ती को भंवर में यारो
हम नही उनमे जो गरदाब से डर जायेंगे


अपना साया भी यहाँ हम से बेवफा निकला
अब तो यह ज़िद है कि हम धूप नगर जायेंगे


उसकी  चाहत तो धड़कती है मिरे सीने मैं   
उसको  पाने के लिए हद से गुज़र जायेंगे

 
इश्क  की  राह सलामत रहे इस दुनिया में
कितने ही कैस अभी “प्रेम” डगर जायेंगे
प्रेम लता शर्मा ........०३/०४/२०१३