बुधवार, 22 मई 2013


ग़ज़ल
क्या
कशिश है तेरी निगाहों में,
मिस्ल-ए–हस्ती है तेरी राहों में!

आरज़ू और भी हुई पुख्ता,
जब से पहुंचे हैं कत्लगाहों में!

दर्द से आह भी जो की मैंने,

वो भी शामिल है अब गुनाहों में!
 
दीद होगी यकीन है मुझको,  
ख़ाक बनकर बिछी हूं राहों में
 
आखरी हिचकी जब भी आए तो,

काश आये उसी की बाहों में !

प्रेम पर तेरी रहमते मौला,
शुक्र है तेरी बारगाहों  में
प्रेम लता शर्मा १५/११/२०१२

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