ग़ज़ल
उसकी आँखों में वो नशा देखा,
हर तरफ़ हमने मयकदा देखा!
ख़्वाब देखा है एक रस्ते का,
जिस में मंज़िल को ला-पता देखा!
जब कुरेदी है ख़ाक माज़ी की,
ज़ख्म–ए-दिल बस हरा हरा देखा!
सच का इज़हार जब किया हमने,
हर कोई बस ख़फ़ा ख़फ़ा देखा!
कश्ती-ए-इश्क है घड़ा कच्चा,
और दरिया चढ़ा चढ़ा देखा!
इश्क़ देखेंगे क्या ख़िरद वाले,
हम ने इस में महज़ ख़ुदा देखा!
मिसल–ए–आहू तमाम सहरा को,
हर जगह पर सराब सा देखा!
उसकी आँखों में वो नशा देखा,
हर तरफ़ हमने मयकदा देखा!
ख़्वाब देखा है एक रस्ते का,
जिस में मंज़िल को ला-पता देखा!
जब कुरेदी है ख़ाक माज़ी की,
ज़ख्म–ए-दिल बस हरा हरा देखा!
सच का इज़हार जब किया हमने,
हर कोई बस ख़फ़ा ख़फ़ा देखा!
कश्ती-ए-इश्क है घड़ा कच्चा,
और दरिया चढ़ा चढ़ा देखा!
इश्क़ देखेंगे क्या ख़िरद वाले,
हम ने इस में महज़ ख़ुदा देखा!
मिसल–ए–आहू तमाम सहरा को,
हर जगह पर सराब सा देखा!
करते किस से तेरी शिकायत हम,
तुझपे तो शहर भी फ़िदा देखा!
“प्रेम” की बारगाह-ऐ-आली में,
तख़्त और ताज भी झुका देखा!
प्रेम लता दिसम्बर, ३,२०१२
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