बुधवार, 27 नवंबर 2013

फिल्बदीह मिसरे “ हो गयी क्या कोई कहता मुझ से” पर एक कोशिश

बच रही है हर इक निगाह मुझ से 
हो गया कौन सा गुनाह मुझ से

कोहकन और क़ैस का किस्सा
पूछता कोई बेवफ़ा मुझ से
 
तुझ से पहले बहार आ पहुंची
की है मौसम ने कज अदा मुझ से

किस भंवर में है डूबना तुझको
पूछता मेरा नाख़ुदा मुझ से
 
कौन दिखलाए राह-ए-मंजिल अब
मेरा बिछड़ा है रहनुमा मुझ से

जो समझता था रूह की बातें
रूठा है रम्ज़-ए-आशना मुझ से

क़ीमत-ए-जान की वसूल उसने
संगदिल ने जो की वफ़ा मुझ से

बज़्म-ए-माह आज कुछ परीशां थी
पूछती थी तिरा पता मुझ से

तू मेरी जिंदगी का हासिल है 
कभी होना नहीं जुदा मुझ से
 
‘प्रेम’ की वादियों में यूं भटकी
खो गया अपना ही पता मुझ से


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