मंगलवार, 17 सितंबर 2013


6/5/2013

TARAHI GAZAL...
HAMSAFAR KO NA KUCHH KAHBAR TAK HAI
SAATH APNA TO BAS SAFR TAK HA

CHHOD KAR JISM KI QAFAS MUJHKO
JAANA AB ROOH KI DAGAR TAK HA

JO AJAL SE BSAA KIYA MUJH MEIN
ZAAT USKI MIRE JIGAR TAK HAI

BAS WAHI HAASIL-E-SAFAR MERA
MERI MANZIL USI KE DAR TAK HAI

MOM KA JISM , RIDA SOORAJ KI
RAAH MEIN N KOI SHAJAR TAK HA

RAKS ME TUND HWAAYE’N HAIN MAGAR
JAANA HAM KO BHI AB BHANWAR TAK HAI

ISHQ KI AAN’KH KA KOI AAN’SU
AA GYAA MERI CHSHM-E-TAR TAK HAI

KASHTI-E-‘PREM’ HAI GHDAA KACHHA
AUT TOOFAA’N MIRE SAR TAK HAI

ग़ज़ल
 

हमसफ़र को न कुछ ख़बर तक है  
साथ अपना तो बस सफर तक है

छोड़ कर जिस्म की कफ़स मुझको
जाना अब रूह कि डगर तक है

जो अजल से बसा किया मुझ में
ज़ात उसकी मिरे जिगर तक है
  
बस वही हासिल-ए-सफ़र मेरा  
मेरी मंज़िल उसी उसी के दर तक है

मोम का जिस्म , रिदा सूरज की
राह में न कोई शजर तक है

रक्स है तुन्द हवाओं का मगर
जाना हम को भी अब भंवर तक

इश्क़ की आँख को कोई आंसू
आ गया मेरी चश्म-ए-तर तक है
 
कश्ती- ए “प्रेम” है घड़ा कच्चा
और तूफ़ान मिरे सर तक है   

1 टिप्पणी:

  1. "कश्ती- ए “प्रेम” है घड़ा कच्चा
    और तूफ़ान मिरे सर तक है"

    बहुत खूब

    जवाब देंहटाएं