शनिवार, 15 सितंबर 2012

ग़ज़ल

किसको खुद में ढूंढ रहा हू

रूह से जैसे बिछुड़ गया हूँ
 
बिन साये के खड़ा धूप में
अपना साया ढूंढ रहा हूँ
पत्ती पत्ती होकर बिखरा
खुशबू अपनी ढूंढ रहा हूँ
अपना पता कहीं खो बैठा
अब दुनियां में ढूंढ रहा हूँ
दुनियां के मेले में यारो
अपने जैसा ढूंढ रहा हूँ
 
घर का या मंदिर का पत्थर
अब रस्ते में पड़ा हुआ हूँ

सहरा सहरा भटक रहा हूँ
क़तरा पानी ढूंढ रहा हू
कब से चाक गिरेबां होकर
कोई मकतल ढूंढ रहा हूँ

मुद्दत से हूँ कफन को ओढ़े
अपना कातिल ढूंढ रहा हूँ
 
"प्रेम" की प्यास बुझा दे कोई
ऐसा दरिया ढूंढ  रहा हूँ

1 टिप्पणी: