शनिवार, 9 जून 2012

लिक्खे हें हथेली पर हंस हंस के सितम हमने,
दिल के इस आँगन में दफनाए हैं गम हमने!

पथराव की बारिश को सहते हुए सीने पर,
रक्खे हैं आईनों के कितने ही भरम हमने !
 

हालात के तूफां हों या दर्द की आंधी हों,
हर हाल में जीने कि खाई है कसम हमने!

जख्मों की कहानी तो सिमटी है दो अश्कों में,
हर गम के फ़साने को कर डाला है कम हमने!

नादानी नहीं है ये
,
रिश्तों की ज़रूरत है,
हाँ उनके सितम को भी माना है करम हमने!

की तुमने तो बेरहमी अपने ही अज़ीज़ों से,
ता-उम्र किये लेकिन गैरों पे रहम हमने!

तकदीर को तोहमत अब किस ह्क़ से  'प्रेम ' हम दें 
,
जब खुद ही तराशे है पत्थर के सनम हमने !
 

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